न जाने क्यूं

कविता 1
न जाने क्यूं

न जाने क्यूं
मैं भी बन जाना चाहता हूं
आदिवासी
रहना चाहता हूं
जंगलों में
नंग धड़ंग आदिवासियों के बीच
समझना चाहता हूं
उस समाज को
जहां नंगे रहने पर भी
वासनाएं नहीं जागतीं
परखना चाहता हूं
उन मर्दों की मर्दानगी
जो हर लड़की को
समझते हैं बेटी-बहन
न जाने क्यूं …
– –
न जाने क्यूं
मैं भी जीना चाहता हूं
उस पहाड़, नदी और झरनों को
शहर में रहकर
पर्यावरण पर कविताएं लिख
नहीं चाहता कागज काला करना
जंगल के कैनवास पर ही
अब लिखना चाहता हूं
अपनी नई कविता
और उस कविता में
सजाना चाहता हूं
पीपल, कटहल, जामुन के पेड़
तेंदू के जंगल को
बनाना चाहता हूं
वह विशाल मंच
जहां आदिवासी भाषण नहीं
नई पीढ़ी के लिए
लगाते हैं जंगल
फिर भी नहीं मनाता कोई
वहां पर्यावरण दिवस
न जाने क्यूं …
– –
न जाने क्यूं
मैं भी चखना चाहता हूं
उस गड्ढे के पानी को
जिसे पीकर आदिवासी
रह लेते हैं स्वस्थ
अब उब-सा गया हूं
बिसलेरी के पानी और
डाॅक्टरों की चैखट से
समझना चाहता हूं
जन और जल के बीच का
वह गहरा समीकरण
देखना चाहता हूं
तालाब, नदियों और
जंगली जानवरों की रक्षा के लिए
कैसे लगा देते हैं वे
अपने प्राणों की बाजी
न जाने क्यूं …
– –
न जाने क्यूं
मैं नहीं जाना चाहता
स्कूल और काॅलेज
रह जाना चाहता हूं
अनपढ़ … गंवार
जीना चाहता हूं
वह सरल सपाट जिन्दगी
जो मिट्टी के घर को ही
मानते हैं अपना मंदिर
और उस गांव में
नहीं होता कोई पहरा
न कोर्ट कचहरी, न पुलिस
फिर भी नहीं मिलती ‘निर्भया’
मैं समझना चाहता हूं
उस संस्कृति को
जो दूसरों की संस्कृति के
नकल के बिना भी
कितनी ठोस है
फिर भी गुमान नहीं उन्हें
न जाने क्यूं …
– –
न जाने क्यूं
मैं जाना चाहता हूं वहां
इस समाज के
ज्ञानियांे की बातों से दूर
नहीं लेना चाहता अब
ज्ञान की बातें
नहीं सीखना चाहता अब
विज्ञान की बातें
रह जाना चाहता हूं
एकदम मूर्ख … अनपढ़
मैं जीना चाहता हूं
प्रकृति को
सारी सुख-सुविधाओं को छोड़कर
न जाने क्यूं … !

कविता 2
तुम्हारा यह पगला !

कितना सूना-सूना लगा था मुझे
तुम्हारे जाने के बाद
जैसे किसी देवालय की मूर्ति
चुरा ले गया हो कोई
और मैं ‘पगला’ देखा करता था
सूनी आंखों से जाकर वहां
और अर्पण किया करता था
अपना प्रेम-पुष्प
हां, उसी देवालय में
जो मैंने बनाये थे
कभी तुम्हारे लिए
और तब तुमने ही कहा था मुझे
‘पगला’ कहीं के ।
– –
कितना खुश हुआ था मैं
तुम्हारे ‘पगला’ कहने पर !
जैसे मुझे सबकुछ मिल गया हो
बिना मांगे, वरदान में
कितना अपना-सा लगा था तब
वह स्थान, वह पल
मैं जी लेना चाहता था
मिनटों में सदियों को
और लगा ही था
बस मोक्ष की प्राप्ति होने ही वाली है
कि ना जाने क्या हुआ
एक बवंडर उठा
और जब शान्त हुआ तो
तुम वहां नहीं थी ।
– –
बिल्कुल सूना था – मेरा देवालय
लेकिन, तब भी अर्पण करता रहा मैं
अपना प्रेम-पुष्प
देवालय तो वही था
तुम्हारी मूरत मेरे मन में थी
और विश्वास था मुझे
एकदिन जरूर मिलोगी किसी मोड़ पर
लेकिन यह नहीं जानता था
ट्रेन की प्रतिक्षा करते हुए
प्लेटफाॅर्म पर यूं मिल जाओगी
एक पराये शरीर के रूप में !
– –
तुम चलती रही अंजाने पथ पर
किसी और के साथ
लेकिन मुड़-मुड़ कर
तकती रही मुझे दूर तक
और तब मुझे यकीन होने लगा
एक अटूट रिश्ता बन चुका है
मेरे मन-मूरत के साथ
सुना था – ईश्वर, देवी-देवता
मंदिर, देवालय में नहीं
पवित्र मन में बसते हैं
आज सच प्रतीत होने लगा
हां, बिल्कुल सच
उतना ही, जितना तुम ।
– –
अब मैं मानने लगा हूं
सूफी संतों की बात
कि सच्चे प्यार में ही
रचते-बसते हैं देवी-देवता
और किसी परिधि के बाहर ही
होता है वह ‘प्रेमनगर’
तुम वहीं निवास करती हो अब
और चढ़ा जाता है प्रेम-पुष्प
तुम्हारा ही यह ‘पगला’ ।


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