गौरवगाथा

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जन्मभूमि जहाँ मातृत्व का हो पर्याय,
पर्वत-नदियाँ जहाँ माता-पिता सम आदर पाएं!
प्रस्तर में भी बसते हो भगवान जहाँ,
रह गया वही है देश के लिए सम्मान कहाँ?
जिसकी गौरव-गाथा संपूर्ण विश्व गाता था!
जग को दे परम ज्ञान जो जगतगुरु कहलाता था!
वचन की रक्षा में जहाँ प्राण गंवाया जाता था!
परोपकार जहाँ पूण्य की संज्ञा पाता था!
स्वार्थ वही देखो कैसी लीला रचाता है,
अपर का न्यास छीन मानव-हृदय हर्षाता है!
राम-राज्य की स्थापना जहाँ हुई थी कभी!
संतुष्ट प्रसन्न जहाँ रहा करते थे सभी!
जहाँ रही है प्रेम-शांति-करूणा-क्षमा-दया,
जिससे हमे है प्राप्त उत्कर्ष सदा हुआ!
वही ‘सर्वकार’ देखो ‘सरकार’ बन गया,
जिसको स्वयं से बस ‘सरोकार’ रह गया!
समृद्ध ऐश्वर्ययुक्त स्वतंत्र देश
में आया परतंत्रता का परिवेश,
जब विदेशी राष्ट्र ने आधिपत्य जमाया
तब क्रांति ने अपना रूप दिखाया!
धरा को निज रक्त से सिंचित कर,
प्रसन्नता से प्राणों की आहुति देकर,
अपनी धरती विदेशियों से मुक्त कर ली गयी!
सब मोल चुका स्वतंत्रता मोल ले ली गयी!
पर स्वतंत्र होकर भी आज प्रसन्नता नहीं होती है!
गणतंत्र होकर भी शोषित जनता लाचार रोती है!
जो है आध्यात्मिकता के तेज से प्रकाशित,
सदा से है जो संस्कृति एवं संस्कारों से पोषित!
विश्वबन्धुत्व-वसुधैवकुटुम्बकम हुए जहाँ से प्रसारित,
वह पुण्य भूमि भारत भूमि कर दी गयी विभाजित!
पहले देश विभाजित हो गया अपना,
फिर प्रारम्भ हो गया राज्यों का बँटना!
अब तो देखो घर भी बंटने लगे हैं!
हम सब स्वयं में ही सिमटने लगे हैं!
घर का आँगन कहीं लुप्त हो गया,
विभाजन की दीवारों में जाने कहाँ खो गया?
जहाँ पावनी पापनाशिनी पवित्र गंगा बहती है,
जहाँ कहते हैं सद्भावना कण-कण में बसती है,
हरिश्चंद्र दधिची सम हुए जहाँ दानी,
वीरों ने दी जहाँ प्राणों की कुर्बानी,
जहाँ परहित हेतु सर्वस्व होता था निस्सार,
वही आज चहुँ ओर होता है स्वार्थ का व्यापार!
धरती का जगतगुरु भारत!
भरतों की पुण्य भूमि भारत!
आज अपने ही ज्ञान से वंचित क्यूँ है?
परोपकार की भूमि स्वार्थ से सिंचित क्यूँ है?
हे भारतवासी! पहचानो अपनी वास्तविकता!
हो पुनः सर्वत्र प्रेम और पारस्परिकता!
फिर इस महिमा मंडित भूमि की महिमा वापस आएगी,
गौरवशाली देश की ‘गौरवगाथा’ सर्वत्र गायी जाएगी!!!

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