माँ के साए में।
पल रहा था एक भ्रूण
रहता था पेट की चहारदीवारी में।
गुलाटी खाता, लातें मारता,
नाल के झूले में
माँ के फेफड़ों से ऊँची पेंगे भरता।
माँ के दिल में कूद जाता।
और कभी-कभी
बाहर आने को भी मचलता।
एक दिन उसने सुना
माँ के कानों से होते हुए,
बात उसके कानों तक पहुँची।
अब उसका लिंग परीक्षण होगा।
पहले ही उसकी सात बहनें थीं।
बाहर की दुनिया में
उसका इंतजार कर रही थीं।
अगर वह भी कन्या निकला, तो ?
तो उसकी जरूरत किसी को नहीं थी।
फिर ? फिर क्या !
फिर उसे मार डाला जाएगा।
अब माँ का नन्हा उदर
बन गया था कारागार।
हर पल लगता था डर।
नाल से बँधा, उल्टा लटका,
साँसें उखड़ने का करता इंतजार।
भूल गया था खेलना-कूदना ।
रहने लगा था सहमा-सहमा ।
मुरझाने लगी थी अधबनी काया ।
साथ नहीं था कोई जुड़वाँ।
कंधे पर ही उसके वरना,
रख लेता वह अपना सिर।
बाहर की बढ़ती हलचल
बढ़ाती थी उसकी धक-धक
हिला जाती थी उसे अंदर तक।
नहीं थी बचने की कोई उम्मीद।
पकड़ लिया था डॉक्टरी जाँच ने।
उसका अनचीन्हा कन्या-स्वरूप
अविकसित ही कोख से उसे अब
हो रही थी तैयारी बाहर लाने की।
गिन रही थी वह भी उल्टी गिनती।
माँ-बाप ही हों जहाँ पराए,
कन्या-भ्रूण को कौन दुलारे।
आरक्षित थी माँ की कोख
मन में बाल गोपाल की आस।
क्या करे वह ऐसी जगह
जहाँ न मिले नेह की छाँव।
बाहर निकाला गया सुबह-सुबह उसे।
निकला था माँस का लोथड़ा बस।
थामा था नर्स ने ले कर डॉक्टर से
लेकिन पंद्रह अगस्त तो उसकी
हो गई थी आधी रात को ही।
अपना भाग्य दूजे हाथों
रचाने के बदले जब उसने,
फाँसी लगा ली थी अपने हाथों
खुद ही अपने नाल से।
आजाद थी, वह आजाद रही।
छू न सके उसे मारने वाले।
नए-नए परीक्षण भी हार गए
उसकी आजादी को मान गए।
लोग हुए खुश, चलो, मरी पैदा हुई।
एक बार रो कर बात खत्म हुई।
लेकिन है यह कदम आत्मघाती
समझ न सके हलकी सोच के धनी।
स्त्री-पुरुष का अनुपात गड़बड़ाया
देश को अंदर से कमजोर बनाया।
विदेशी ताकतों का खतरा बढ़ाया।
एक के बिना है दूसरा अधूरा।
कैसे दिखें दुनिया के सामने पूरा।
विकलांग देश को गुलाम बनाना
बिलकुल भी मुश्किल काम नहीं।
गवाह हैं इतिहास के पन्ने
जो नहीं सीखे सबक इससे
इतिहास रचेगा यही फिर से
बीज जब वटवृक्ष बनता
छाया देता, बसेरा मिलता
कन्या-भ्रूण जब बने नारी
सारी दुनिया उसने सँवारी।
दे दो उसे उसकी आजादी।
उसका हक, उसकी जिंदगी।
समाज बनाओ स्वस्थ इतना
समाए उसमें नारी का सपना।
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