मातृभूमि की माटी का सुख

मातृभूमि की माटी का सुख, कहीं स्वर्ग में भी मिलता नहीं,
हम देश से निकले हैं मगर, देश हमसे निकलता नहीं ।

वो दशहरे की रौनक, वो दिवाली के पटाखे,
वो दुर्गा जी की प्रतिमा, वो चीनी वाले बताशे |
वो ठेले के गोलगप्पे, वो इडली और डोसा,
वो गन्ने का रस अदरख डालकर, वो छोला और समोसा |
वो गांव की अलबेली शादी और लाउडस्पीकर का बेसुरा गाना,
वो दूल्हे के बगल बैठना, वो फूफा का मुंह फुलाना |
वो सब्ज़ीवाले से कहना, भैया थोड़ा कम लगाना,
वो बैठकर खेतों में, ट्यूबवेल के पानी से नहाना |
वो मनमर्ज़ी घर आ पाने का सुख, वो माँ के हाथों का खाना,
वो दादा-दादी, चाचा-चाची, वो भैया-भाभी, नानी और नाना |
कितने रिश्ते छूटे हैं वहाँ पर, कितने किस्से छूटे हैं वहाँ पर,
है इतनी चकाचौंध यहाँ, कुछ साफ़ से दिखता नहीं,
हम देश से निकले हैं मगर, देश हमसे निकलता नहीं ।

परदेश के सूरज में भी, देश का चाँद ही यादों में है,
काम आ सकूँ मैं कुछ देश के, ऐसा कुछ ख्वाबों में है |
है बहुत यह चाह कि, अपना श्रेष्ठ सबसे विज्ञान हो ,
नहीं वो कोई छोटा या बड़ा, सबका बराबर मान हो |
समाज में रहें सब मिल, नर-नारी का बराबर स्थान हो,
बनें हम आत्मनिर्भर, अर्थव्यवस्था पर हमें शान हो |
हम यूँही ना भागें पश्चिम की ओर, अपनी संस्कृति पे हमें गुमान हो,
सारी दुनिया से अलग, एक भारतीय होने की पहचान हो |
मैं कुछ देश के लिए कर पाऊं अगर, मिले भले ही कठिन डगर,
तो इससे बड़ा कोई सुख नहीं, इससे बड़ी कोई सफलता नहीं,
हम देश से निकले हैं मगर, देश हमसे निकलता नहीं ।


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