एक डॉक्टर माँ की वीरता
भोर हुई और मैं जागी, चूल्हे पे चाय चढ़ा दी थी।
अस्पताल भी जाना था, सारी तैयारी कर ली थी ।
एक भय आया अंतर्मन में, बाहर एक दैत्य है खड़ा हुआ ।
क्या मैं इससे बच पाऊँगी, डर का सन्नाटा पड़ा हुआ।।
बेटी की भोली प्यारी सी, सूरत देखी एक न्यारी सी।
माँ का कलेजा पिघल गया, एक डॉक्टर अंदर सिहर गया ।
अपने की है फिक्र किसे, पर अपनों संग मैं रहती हूँ।
जाने अनजाने में ही, अपनों की हानि न कर दूँ।।
अभी कल ही की तो बात है, महिला इक क्लिनिक में आयी।
पति दुबई से आया था, बच्चे की ‘अर्जेंट’ चाहत थी लायी।
दूसरी जो आयी थी कल ही, ट्रैन पकड़ के बिहार से।
सीधा ओपीडी आयी, चेहरा धक् के रुमाल से।
मैंने पूछा क्या हुआ, बोली हल्का सा दर्द रहता है।
कबसे है, मोहतरमा ने कहा, ‘चार साल’ से होता है।
इस गैर ज़िम्मेदारी का क्या कुछ भी हल हो पायेगा।
खुद न समझे जन जब तक, कानून भी क्या कर पायेगा।
खुद की है परवाह किसे, अपनों की फिक्र तो होती है।
माँ का दिल तो रोता है, जब भय की आंधी चलती है।
अंदर से आयी इक आवाज़, ‘तू माँ है, बेटी है, है बहन ।
पर सब से पहले इंसान है, सबकी सेवा ही तेरा धर्म।’
फिर बाहर से आयी आवाज़, “मैडम जाने की नहीं क्या जल्दी?”
अंतर्द्वंद में फंसी हुयी, फिर बैग उठा कर मैं चल दी!
– डा नीलांचली सिंह
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