“कैसा होगा भाग्य देश का”
कैसा होगा भाग्य देश का,
शोणित कण जहाँ बरसते हों I
निर्दोषों को दण्ड मिल रहा ,
कातिल स्वच्छन्द विचरते हों II
काग़ा जहाँ हंस बन बैठा,
कोयल की कूक तरसती हो I
स्वाँति पपीहा तकता रहता ,
घटा गरल बरसाती हो II
पीठ से हाय! लहू बरसता,
सीने के घाव कसकते हो I
कैसा होगा भाग्य देश का,
शोणित कण जहाँ बरसते हों II1II
सेवक सेवा से मुक्त जहाँ ,
औ सेवारत चटुकारी हों I
नाच नाचते चाकर फिरते ,
नटराज बने अधिकारी हों II
कितनी सेवा चाकर कर ले ,
पर बढ़ निर्देश बिखरते हों I
कैसा होगा भाग्य देश का,
शोणित कण जहाँ बरसते हों II2II
फुटपाथों पर सोता मानव ,
बिस्तर स्वानों को मिलते हों I
मजदूरों के लहू से जहाँ,
कोठी के दीपक बलते हों II
गाँधी, शेखर और इंदिरा के,
दिल के अरमान सिसकते हों II
कैसा होगा भाग्य देश का,
शोणित कण जहाँ बरसते हों II3II
“ जीत ” बना अब खड्ग कलम को,
रण बिगुल बजा तू वाणी का I
“ मसि ” का तिलक लगा मस्तक पर,
चिंतन कर माँ कल्याणी का II
रचना कर तू उन गीतों की ,
जिनसे फिर भाग्य बदलते हों I
रे! स्वर्ग बनेगा फिर भारत ,
अमृत कण जहाँ बरसते हों II4II
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