द्रोपदी का पत्र

प्रिय नारी

तुझे अबला कहो, सबला या बेचारी

क्षमा करना देवी तेरी भावनाओ को आहत करने की मंशा नहीं हैं

इस वीभत्स पुरष का अनाचार अभी तक रुका नहीं हैं

मैं सोच रही थी कि अगर उस समय भी सविधान होता

तो में कोर्ट के चक्कर लगाती रहती

और दुशासन बड़ी शान से बरी होता

मेरे केश तो खुले रह जाते

और यह हृदय सदा के लिए छलनी होता

तुम्हारी सरकार का यह कैसा इन्साफ हैं

बालिग़ अपराध करके नाबालिग की सजा माफ़ हैं

आज भी न्याय किसी सभा में परास्त हो रहा हैं

तेरा इंन अंधे, बहरे अहंकारियों के बीच हास-परिहास हो रहा हैं

यह चाहते तो ऐसा सम्मान कराते

उस क्रूर को राष्टपति के हाथो सिलाई मशीन दिलवाते

इस पत्र का अंत इस बात से करती हूँ

जो दिखता हैं वही छीन लिया जाता हैं

चीर तो चीर हैं किसी सभा में भी खीच लिया जाता हैं

तेरा आत्मसम्मान इस अस्मिता से कही बड़ा हैं

याद रखना इसी गौरव के आगे पूरा कौरव वंश

कुरुक्षेत्र की रणभूमि पर हारकर गिरा पड़ा हैं

रीति-रिवाज हमसे हैं हम उनसे नहीं हैं

मंन की पवित्रता किसी के गिराने से गिरी नहीं हैं

गली में चलते हुए कोई पागल कुत्ता काट जाये

तो घर से निकलना बंद नहीं करना

मैं भी नहीं डरी तू भी न डरना

आज तू कितने दुशासन और जयद्रथो से घिरी पड़ी हैं

सच तो यह हैं कि तू द्रोपदी से भी बड़ी हैं

तू द्रोपदी से भी बड़ी हैं……………………..


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