मातृ-भू का मान रखने के लिए
(१)
मित्रता की आड़ में वैरी कोई-
विश्वास की दुल्हिन सदा छलता रहे।
ज्वालामुखी-सा, तब धधकता देह में-
संधि का सूरज अगर ढलता रहे।।
(२)
सभ्यता के आचरण मैले बनें,
अन्याय का दुर्भाव पलता ही रहे।
तब असंभव है कि दीपक शान्ति का-
अनवरत्, निर्बाध जलता ही रहे।।
(३)
दुर्ग ढहते ही रहें यदि संधि के-
छल, कपट, आघात होते ही रहें।
प्रतिवास में आवाज़ युद्धीली बने,
है असम्भव- वीर सोते ही रहें।।
(४)
श्वेत हारिल, बस उड़ा कर व्योम में-
शांति की वह बात बस कहते नहीं।
क्रांति का भी मंत्र हैं उच्चारते,
छल, कुटिल-आघात वह सहते नहीं।।
(५)
जब कभी अनुनय-विनय से संधियाँ,
जान पड़ती हैं कि हो सकती नहीं।
तब उठाना ही पड़ेगा बाण को,
सीख मिलती राम-चरितों से यही।।
(६)
धूमाकुल पयोधर युद्ध के उड़ते रहें-
देर क्या हो; आग लगती शान्ति में।
मौन हैं, चुपचाप सब हैं सह रहे-
दिग्भ्रमित रहना नहीं इस भ्रान्ति में।।
(७)
पाल मत भ्रम, सिंह है सोया हुआ,
उत्तेजना का फल बहुत विकराल है।
नेत्र खोले, नींद से जागा अगर-
वार नख का भी करे, तो काल है।।
(८)
शांति तप में लीन ‘दुर्वासा’ अभी,
परिवेश मत उत्पन्न कर प्रतिरोध का।
तप अगर टूटा, तो सह सकता नहीं,
कोप तू ऋषि के प्रगल्भी क्रोध का।।
(९)
देखता हूँ; युद्ध का परिदृश्य भी-
वीभत्स है; भग्नावशेष-अनर्थ है।
किन्तु जब वैरी खड़ा हो द्वार पर-
घर की किवाड़ें बन्द करना व्यर्थ है।।
(१०)
धर्म है- ‘अर्जुन’ धरे गांडीव को-
‘भीम’ भी अपनी गदा को, धार लें।
इससे कि पहले शत्रु सोचे वार की-
रण-भूमि को अरि-शीष का उपहार दें।।
(११)
स्वर्ण से भी क़ीमती रज-कण यहाँ,
बलिदानियों का रक्त है जिसमें भरा।
मातृ-भू रक्षार्थ; संतति जन्मतीं,
उन प्रसूताओं की यह पावन धरा।।
(१२)
साहस अभी, तुझमें कहाँ पैदा हुआ-
माँ भारती का मान मर्दित कर सके?
प्रहरी बने हैं; भारती के वीर सुत,
प्रतिमा भला, कैसे तू खंडित कर सके?
(१३)
दुर्-दृष्टि यदि वैरी गढ़ाए हिन्द पर-
‘लक्ष्मी’ बन, टूट पड़तीं नारियाँ।
गर्भ में ही सीख लेते शिशु यहाँ,
रिपु-दमन, रण की सभी तैयारियाँ।।
(१४)
सिंह-शावक के दशन गिनने का हठ,
ठान लेते, खेल में शैशव यहाँ।
युद्ध-भू में मार्गदर्शन हेतु ही-
‘गीता’ सुनाते ‘पार्थ’ को ‘केशव’ यहाँ।।
(१५)
अंश भर भी इस धरा का ले सके,
पाल मत लेना कहीं भ्रम मोद में।
भूलवश भी पाँव यदि तेरा बढ़ा,
सोता मिलेगा मृत्यु की ही गोद में।।
(१६)
स्वप्न मत तू देखना ऐसा कभी-
तेरे नयन के हेतु, जो दुःश्राप हो।
दुःकर्म मत कर बैठना त्रुटिवश कभी,
जिस पर स्वयँ तुझको भी पश्चाताप हो।।
(१७)
पूछ लेना हश्र ‘ग़ौरी’ से ज़रा,
उलझ मत जाना कहीं ‘चौहान’ से।
स्वाद ‘अकबर’ को पराजय का चखा-
‘राणा’ अभी लौटा है रण-मैदान से।।
(१८)
धर्म की ले ओट, तू छल पाएगा,
दफ़्न कर कल्मष भरे अरमान को।
हम कदाचित् भूल सकते ही नहीं,
रणबाँकुरे ‘हमीद’ के बलिदान को।।
(१९)
अभिसार में सिंहनाद जो करता बढ़ा-
‘जय-हिंद-भू, जय-हिंद-भू’ की बोलियाँ।
मृत्यु की गरिमा बढ़ाई वीर ने-
वक्ष पर, हँस झेल लीं सब गोलियाँ।।
है ऋणी इतिहास उस ‘अशफ़ाक़’ का,
आज तक यह भेद समझा तू नहीं।
फाँसी चढ़ा, सन्देश जो यह दे गया,
शीष दे सकता हूँ, लेकिन भू नहीं।।
(२०)
तोड़ दी तन्द्रा समूचे विश्व की,
एटमी विस्फोट के संग्राम ने।
इतिहास रच डाला स्वदेशी-शौर्य का,
हिन्द के सपूत अब्दुल कलाम ने।।
(२१)
विस्फरित थे, नेत्र सारे विश्व के,
‘भारती’ के एटमी अधिकार पर।
और क्या उपहार दूँ तुझको कलाम-
लेखनी का तू नमन स्वीकार कर।।
(२२)
भूँकते हैं श्वान, पर यह सत्य है,
वीर-जन विचलित कभी होते नहीं।।
वक्ष पर, हँस झेलते हैं वार सब-
तलवार हों या गोलियाँ, डरते नहीं।।
(२३)
दम्भ मत करना तू ‘ग़ौरी’* पर कभी,
भीख में; जो पा लिया वह दान है।
अस्थियाँ हमने गला; आयुध गढ़े,
‘पोकरण’ एक जागरण का नाम है।।
(२४)
शास्त्र की पुस्तक हमारे शस्त्र हैं,
वेद-मंत्रों की ऋचाएँ ढाल हैं।
भैरवी यदि छेड़ दे हर कवि कहीं,
याद रख, हर शब्द तेरा काल हैं।।
(२५)
मत समझना, मात्र तू कविता इसे-
चेतावनी है; ध्यान रखने के लिए।
हँस कर कटा देंगे, यहाँ निज शीष भी-
हम मातृ-भू का मान रखने के लिए।।
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