मिलूँ जो ख़ाक में चाहे, चिता पर राख हो जाऊँ,
धुले गंगा में मन मेरा, यों धुलकर पाक़ हो जाऊँ।
मेरी मिट्टी पे ज़ाया हो, मेरे ख़ून का हरेक कतरा,
जफ़र अंज़ाम हो जिसका मैं वो आग़ाज़ हो जाऊँ।
जिसके शौक पत्तों के, मैं पतझड़ का वो मौसम हूँ,
मुझे है शौक गाते कोयल की मैं आवाज़ हो जाऊँ।
बहुत है आज़ मुझमें भी, हिमालय से लिपटने की,
वतन के इश्क़ में मिटकर भी मैं आबाद हो जाऊँ।
तू शाह ज़न्नत का, मैं मिट्टी का, अब्तर खिलौना हूँ,
जलूँ इस आग में पल पल कि आफ़ताब हो जाऊँ।
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