सपने धूप के
दुश्वर सपने
फिर से देखें
नयी नवेली धूप के
सोने की चिड़िया
की क्यों कर
मंद हुई परवाजें
राह देखते रहे अनेकों
खुले हुए दरवाजे
जमी वसा को
अब पिघलाएं
चर्चे हों फिर रूप के
काले अक्षर
भैंस बराबर
चिड़िया चुगती जाती खेत
भ्रम बिल्ली से
राहें काटें
शुतुरमुर्ग सिर डाले रेत
आसमान से
बात करें हम
क्यों हों मेंढक कूप के
युगों से बहती
इस धारा को
कई कछारों ने बांटा
लेकिन रह रह
हर रेले को
सिन्धु ने अक्सर पाटा
एक है अपनी
पुण्यभूमि
दाने हम एक सूप के.
-परमेश्वर फुंकवाल
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