अभिमान . . .

परिस्थिति और देश काल को
अनदेखा कर देना।
ठीक नहीं है अकर्मता को
विधि लिखित है कहना।
वीर उठो अब धर्म दंड से
विधान लिखना होगा।
हर कण-कण को करो प्रफुल्लित
अंतर मन को छेडो। १।
तान धनुष को, बाण पे तुम
अभिमान लगा के छोडो। धृ।

कबतक भागोगे स्वधर्म से
कबतक युद्ध टलेगा।
जबतक मन में दुविधा होगी
तबतक युद्ध चलेगा।
देखो वीरा धर्मयुद्ध में
धनुष उठाना होगा।
अबतक तुमको रोकरहे
वो पाश आभासी तोडो। २।
तान धनुष को, बाण पे तुम
अभिमान लगा के छोडो। धृ।

अपने मन को निर्धारित कर
प्रत्यंचा को ओढो।
सारी ऊर्जा लक्ष साधने
एक दिशा में मोडो।
विजय पराजय स्वाभाविक है
जो होना है होगा।
वीरों के इस कर्मयज्ञ में
अपना हिस्सा जोडो। ३।
तान धनुष को, बाण पे तुम
अभिमान लगा के छोडो। धृ।


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