उगता सूरज जिसे कहते थे, दोपहर तक जल के ख़ाक हो गया
इनकी रहबरी की आज़ में देश मेरा चाक-चाक हो गया
आए चपेट में जाट, किसान, कुकी, नागा, मुसलमान
ख़्वाब-नाक एक जहान जाने कब ख़तरनाक हो गया
एक कट-पुतली की तरह नाचे सियासती मंच पर
ग़लत-फ़हमी के दौर में फ़हम-ओ-इदराक मज़ाक़ हो गया
वाद-विवाद जो आज़ाद ख़याली का कभी गहना था
आज “keyboard-warriors” का ज़हरीला सलाक हो गया
पुरानी कोई रंजिश, नई कोई ग़लत बयानी
बहाना कोई भी हो, ज़माना ज़हरनाक हो गया
जनता के मुद्दे तो जनता तक ही रह गये
नुमाइंदा हमारा भी पार्टी का इमलाक़ हो गया
जो बात किया करते थे ईमानदारी, एकता की
इलेक्शन जीत कर बाज़ार में दस्तियाब हो गया
राजनीति से राज धर्म तो कहीं खो गया
बस प्रजा विरुद्ध नीतियों का सैलाब हो गया
कल जो थे रक़ीब, आज गठ-बंधन में हैं
बे-उसूली का जश्न नया रिवाज हो गया
सीना चोड़ा कर के कोई भी झूठ कह डालो
सच सामने आने तक बे-तुका इंक़लाब हो गया
पुलिस अदालत भी लग गये हाकिम खुश करने में
इंसाफ़ मिलना तो जैसे कोई अज़ाब हो गया
बे-शक हम इस बार चाँद पर जा उतरेंगे
पर उस गाँव का क्या जो बारिश में बर्बाद हो गया
“पार्टी आएँगी जाएँगी पर ये देश रहना चाहिए”
इस सोच का नेता आज नायाब हो गया
लोकतंत्र, लोकहित जो इस मिट्टी में बो गये
“Whatsapp यूनिवर्सिटी” का हर अहमक उनका विवाक हो गया
“कोई तो सूद चुकाए, कोई तो ज़िम्मा ले
उस इंक़लाब का जो आज असीम उधार हो गया” – कैफ़ी आज़मी
अहम् ब्रह्मास्मि का संस्कार रखने वाला देश
क़ौम परस्ती के रथ पर कब सवार हो गया
गली का गुंडा जो कलम पकड़ना नहीं जानता था
घूस खिला कर, शराब पिला कर सरकार हो गया
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