क्यूँ लिखता है श्रृंगार का ये कवि शब्दों से अंगार
जब शीश कटता है सीमा पर मेरे देश के जवान का…
लहू उबलता है जब पूरे हिंदुस्तान का………………
मेरी भी रगों का तब खून खोलता है……………….
कतरा-कतरा मेरे जिस्म का तब शब्द बनकर बोलता है
जब अमन का ख्वाब आँखों में, आँसुओं में गल जाता है
जब कोई हाथ मिलाकर फिर हमको छल जाता है…….
जिस्म मेरा तब ऊपर से नीचे तल जल जाता है……….
मेरे अंतर का सारा आक्रोश तब शब्दों में ढल जाता है…
जब राजनीति होती है कटे हुए सर पर, बहते हुए लहू पर
और हाथ पकड़ कर जब कोई सर पर चड़ जाता है……..
अगले ही पल जब कोई जवान फिर दुश्मन से अड़ जाता है
श्रृंगार का ये कवि तब शब्दों से अंगार गड़ जाता है………
जब दुश्मन का ओछापन नसों में जहर घोलता है
जब सब्र की नब्ज़ को कोई हद तक टटोलता है
जब सियासत बेशर्म और निकम्मी हो जाती है…
और पड़ोसी सर पर चड़कर बोलता है……….
ठंडी पड़ी शिराओं का तब मेरी खून खोलता है…
कतरा-कतरा मेरे लहू का शब्द बनकर बोलता है !
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