दिल्ली की ऊष्मा से मुक्ति की ईच्छा थी,
कर्कश ध्वनियों से दूर भगाना चाहता था मैं।
जूतों को चमकीले फर्श की आदत लग गई थी,
उन्हें पत्थरों पर रगड़ना चाहता था मैं।
इतालवी, अंग्रेज़ी व्यंजनों ने महोदर कर दिया था,
कुछ पहाड़ी देशी का स्वाद चखना चाहता था मैं।
हड्डी चीर गई तीर जो शीत ने चलाया,
कोसो दूर तक कोई देहात नज़र नहीं आया।
कठोर भूधर खड़े हर ओर,
पग ने कहा अब ये राह ही छोड़।
आहार दुर्लभ दिख रहा है यहां,
हरियाली सारी आखिर गई कहां।
बंजर जमीन पर दिखा ना एक भी शाख,
आपकी सोंच से भी ज्यादा निर्मम है लद्दाख।
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