मातृभूमि से प्रेम
मातृभूमि के प्रेम से, धुल जाता हर स्याह रे,
घोर अंधेरे, ताक लगाए, बैठे रहते, द्वार पे,
मन भरता है, सर फटता है, लगन भरे हर काम से,
जब व्यथा ही, आ जाती है, तेरे ज़ोर प्रयास से,
राह बड़ी ही दूभर होती, जीवन जैसे हास्य है,
याद रखो पर, जीव-प्रकाश का शोर नहीं है,
देर सवेर वो मिट जाएगा, दुख तेरा, अछोर नहीं है,
दूर कहीं पे, जुगनू जैसे, जुट जाते हैं पेड़ पे,
एक पक्ष फ़िर आ जाएगा, चंद्र किरण का श्वेत रे,
मातृभूमि के प्रेम से, धुल जाता हर स्याह रे,
क्या शीश का मान बढ़ाना, मूर्ख विषय और द्वेष हैं,
केश-कपाट ये, ठाट-बाट हैं, मिट्टी के ही मोल रे,
शांत-चित से, विनम्र मार्ग पर, बन जाते हर काम हैं,
डाह-मोह से, जल जाते हैं, हर्ष-रस के बोध रे,
तुक-मेल और सरल भाव से, भर जाते सब घाव हैं,
मातृभूमि के प्रेम से, धुल जाता हर स्याह रे,
शुष्क, कठोर ही रह जाते हैं, तंगदिलों के खेद रे,
आद्र भूमि पर उग आते हैं, हरियाली के भेद हैं,
शांत रहता वृहत गगन ये, पंछी करते शोर रे,
ज्ञान नहीं तो, गान करो तुम, शांत हृदय के भेष में,
मुक्तता, एक क्षण मात्र है, मोक्ष सदैव ही शेष है,
मातृभूमि के प्रेम से, धुल जाता हर स्याह रेI
-डॉ. नौशाद परवेज़
28/09/2020
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