मैं आज भी तुम्हारी इबादत करती हूँ।

इसमें लिखते हो..
इस मुफ़लिस की अकीदत भी तुम हो,
और मज़हर-ए-उलफत भी तुम ही हो,
फर्क सिर्फ इतना है ,अभी सिर्फ मैं ये सोचता हूँ,
पर तुम्हारे जवाब का इंतज़ार करूँगा मैं।

अब किसे जवाब दूँ मैं?
तुम्हारी इस तिरंगे में लिपटी वर्दी को?
अभी तो मुझे तुमसे घंटों बातें करनी थीं,
तुम्हारी उन दर्द भरी अकेली रातों के गम बाँटने थे,
पर बदनसीबी तो देखो मेरी, कि वो हक भी नहीं है मुझे।
आखिरी बार तुमसे लिपट कर रो भी नहीं सकती।
यहाँ तक कि तुम्हारे नाम का धवल लिबास तक नहीं पहन सकती।
बस अकेली इसी काग़ज़ से सिसकसिसक के अपनी पीड़ा गा लेती हूँ।
तुम्हारे चेहरे की मुनक्क़श को ज़हन में उतार कर उसी का दीदार कर लेती हूँ।
मैं तो अपने आप को उर्मिला भी नहीं कह सकती,
क्योंकि ये रिश्ता तो बेनाम-ओ-नमूद ही रह गया।

पर तुम्हारी अज़्मत मे ,मैं फक्र से कहती हूँ,
ये देश न चलता है ,इन फ़रेबी राजनेताओं से, न इनके झूठे वादों से!
ये देश चलता है, हमारे जैसे प्रियतमों के सादिक हौंसलों से!

जाते जाते भी तुम मुझे सच्ची वफ़ा सिखा गये हो,
तुम नहीं तो क्या हुआ!
इस दिल में तुम्हारे प्यार का मक़ाबिर बना कर,
मैंने भी इस वतन का श्रृंगार ले लिया है।
जिसके लिए तुमने कुर्बानी दी है,
मैं उसी के सहारे आज भी तुम्हारी इबादत करती हूँ।


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