वो तिरंगा में लिपटी वर्दी भी, देखना चाहती थी उसके माथे पर सिंदूर,
सुनना चाहती थी, उन चूड़ियों की खनखनाहट,
पैरों में पायल की झंकार,
चूमना चाहती थी, उन हाथों की मेहंदी,
सूँघना चाहती थी, उन गजरों की खुशबू,
छूना चाहती थी, वो रेशम से बाल,
बताना चाहती थी, वो दर्द भरी अकेली रातों की दास्तान।
पर बदकिस्मती तो देखो!
जिसे महफ़िल की ख्वाहिश थी
मिलीं तनहाईयाँ उसको।
क्या बेबसी है कि अपने हालात बता भी नहीं सकती,
बस अँधेरों में बंद एक याद बन गई है,
उनकी तनहाईयों का साथ बन गई है।
शायद, उस खुदा को इतना भी गँवारा न था,
कि उन्हें पता भी न चला, कि कितने लाजिमी थे वो उनके लिए
कि उससे पहले ही, अपने पास बुला लिया।
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