क्रांति की आशा…

कोयल की मधुर वाणी न मैं श्रृंगार लिखता हूँ
कलम को खून से भरकर ग़ज़ल अंगार लिखता हूँ

वीरों का यहाँ रुसवा रोज़ बलिदान होता है
वतन की आन पर आघात यहाँ नादान होता है
कोई सौ क़त्ल करके भी चैन की नींद सोता है
कोई मासूमियत का कर फ़ना हो कर के देता है
यहाँ पर देश का बचपन सड़कों पर भटकता है
यहाँ ममता का आंचल अब पुत्र को भार लगता है
यहाँ नेतृत्व करता है जिसे न सूझ मंजिल की
यहाँ तो बस चुनावों पर है झूठी आस ही मिलती
जिन्हें यह देश सौंपा था आस्तीन के सांप निकले सब
जो थे राष्ट्र के भरतार वही गद्दार निकले सब
है यह बलिदान की धरती यहाँ मत स्वार्थ पलने दो
मिटा दो हर बुराई को यहाँ मत पाप बढ़ने दो
न कोई काल्पनिक घटना मैं बस यथार्थ लिखता हूँ
कलम को खून से भरकर ग़ज़ल अंगार लिखता हूँ

यहाँ सीता की रक्षा को स्वयं जब राम आते हैं
तो जल में रास्ता बनता है पत्थर तैर जाते हैं
यहाँ पर द्रौपदी की लाज पर कोई जो आंच आती है
लहू से केश धुलने को महाभारत हो जाती है
यहाँ जननी की सेवा का जो राणा प्राण उठाता है
तो उसकी असि-धार के आगे मुग़ल शासन झुक जाता है
कोई माँ राष्ट्रहित हेतु जो निज शिशु को कटाती है
महाबलिदान की देवी वो पन्नाधाय कहती है
यहाँ झाँसी की रानी ने लिखे इतिहास खूनों से
थी अर्चित भू सुभाष आज़ाद भगत जैसे प्रसूनों से
धरे ब्राह्मण भी जो कृपाण तो पापी वंश हिल जाये
और क्षत्रिय भी जो बाँटे ज्ञान तो जग को बुद्ध मिल जाये
भुला बैठा जिसे भारत मैं वो समाज लिखता हू
कलम को खून से भरकर ग़ज़ल अंगार लिखता हूँ

न जाने किस समाधी में है स्वाभिमान हम सबका
न कोई चार तमंचे ले हमें ललकार नहीं सकता
जो सरहद पार है बैठा यहाँ विस्फोट करता है
कोई सैनिक के धड़ से शीश ले अपने घर में रखता है
अहिंसक हैं तो क्या आघात होकर मौन खायेंगे
यही हद है ये सरहद है उन्हें अब हम बताएँगे
उठो ऐ सिंह के पूतों तुम्हें अब जागना होगा
हर इक जननी के घावों का हिसाब अब मांगना होगा
छिपा बैठा कहीं दिनकर है गहरी इन घटाओं में
दबी तूफ़ान की आहट है ठहरी इन हवाओं में
जो बोया था भगत ने बीज उसका फल भी आयेगा
निकल घनघोर तम से इक सुनहरा कल भी आयेगा
शुरू अब जंग होने को है मैं आगाज़ लिखता हूँ
कलम को खून से भरकर ग़ज़ल अंगार लिखता हूँ

छिपा सबके दिलों में जो वतन का प्यार लिखता हूँ
कलम को खून से भरकर ग़ज़ल अंगार लिखता हूँ


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