राष्ट्रीयता

राष्ट्रीयता (मुक्तक)

देश में जो बाहरी बहुरूपता है,
अन्तःकरण में उसी के एकता है।
ऐ विघटनों के प्रवक्ताओं जान लो,
ये बड़ी सुलझी हुई परिपक्वता है।।

इस धरा पर वास करते देवता है,
विश्व सारा मान करता पूजता है।
हिन्द में है बात कुछ ऐसी अनोखी,
सर झुका देता इसे जो देखता है।।

इन हवाओं में घुली ज्यौं दिव्यता है,
भावनाओं में सहेजी शुद्धता है।
हिन्द के वासी निवासी जानते हैं,
भिन्नता में एकता की भव्यता है।।

बँधी रेशम डोर से आबद्धता है,
चकित हो जाती स्वयं सम्भाव्यता है।
कौन सी हैं शक्तियाँ मजबूत करतीं,
भिन्न धारा थामने की दक्षता है।।

भारत माँ के चरणों में हम, शीश नवा कर आएंगें।
इसकी खातिर हम अपना सब, न्यौछावर कर जाएंगें।।
अग्नि परीक्षा भी दे देंगे, मातृ भूमि की रक्षा में।
दीप एकता का लेकर हर, जगह समन्वय लाएंगें।।

नफरत की हम दीवारों को, मिलकर तोड़ गिराएगें।
परम पावनी गंगा-धारा, हम सब जगह बहाएगें।।
सम्भव होगी बात जहाँ तक, ये दिल सेवा को तत्पर।
सद्भाव रहेगा हर दिल में, सब मतभेद भुलाएगें।।

निश्चित भू में रहने वाले, नागरिकों की वो धरती।
उसी देश में राष्ट्रीयता, प्राण-वायु बनकर रहती।।
संजीवनी की तरह दिल में, भाव एकता के सजते।
सद्भाव समन्वय की गंगा, जन-मानस में नित बहती।।

भेद-विभेद चले संग-संग, संस्कृतियों मे रंग रहे।
भाषा-बोली, खान-पान सब, रीति-रिवाज उमंग रहे।।
बात रहे स्वीकार भाव की, और नहीं कुछ मुश्किल है।
सबकी ही है अदा निराली, मन में सजी तरंग रहे।।

नहीं देशहित में होता है, बाधक तत्वों का बढ़ जाना।
क्षीण शक्तियाँ करते हैं जो, उनको है मुश्किल समझाना।।
हर मानस को जोड़ रही जो, उस धागे की रेख इकहरी।
रहकर सदा सजग होगा हर, बाधा का आधार मिटाना।।

साम्प्रदायिकता के संवाद, माने धर्म देश के ऊपर।
फूट डालते समाज में हैं, बाँटे घृणा द्वेष फैलाकर।।
मतभेदों से मनभेदों तक, दौर जटिल चलता रहता है।
कुटिल चाल से सदभावों की, छोटी पड़ जाती है चादर।।

भाषा बनती वाद जहाँ पर,करती राष्ट्रवाद कमजोर।
अपनी-अपनी बोली भाषा,की बस पकड़े रहते डोर।।
भाषा के आधारों पर भी,हुआ प्रदेशों का बँटवारा।
जोड़ सके जो हिन्दी भाषा,आपत्ति उस पर रही है घोर।।

क्षेत्रवाद बाधक की तरह, रहा राष्ट्रवाद का रोड़ा।
क्षेत्रीय कट्टरता ने भी, तन भाव एकता का तोड़ा।।
धन वाले तो कुछ निर्धन भी, विकसित तो कुछ कम विकसित भी।
स्वीकार नहीं इक दूजे को, पथ सदा समन्वय का मोड़ा।।

वर्गभेद जातीय विखण्डन, जोड़ते नहीं हृदय के तार।
ऊँच-नीच के भेदभाव से, द्वेषपूर्ण होता संसार।।
कलुषित भाव भरे जो मन में, समरसता हरती जाति-प्रथा।
जातिवाद ने छीन लिये हैं, सामाजिक एकता का सार।।

हो उदासीन कर्तव्यों में, नैतिक पतन या भ्रष्टाचार।
अनुशासन से हीन सिरफिरी, भौतिकता ने लिया आकार।।
साम, दाम या दण्ड भेद सब, चलते साथ सदा रहते हैं।
मधुर समन्वय भावनात्मक, स्वप्न किस तरह हो साकार?

पूरब से पश्चिम तक रहती, उत्तर से दक्षिण तक।
सदभाव, समन्वय समता हो, भाईचारा साधक।।
वो डोर बड़ी मजबूत रहे, जो है कोमल रेशम सी।
लेकिन बाँध रही मानस को, बनी एकता की वाहक।।

उत्तर में पर्वतराज हिमालय,शुभ्र मुकुट सिर पर सुन्दर है।
दक्षिण में सजती सागर माला,पावन पग धोता सागर है।।
पूरब में हरियाली के अंचल, पश्चिम के अनुपम भूमण्डल।
ज्यौं हाथ हुए भारत माता के, नेह भरी मन की गागर है।।

जिसे हम हिन्द कहतें हैं, वो देवों की धरती है।
जहाँ पर पावनी गंगा, धरा की गोद भरती है।।
स्वर्ग से है उतर आयी, स्वंय भागीरथी देखो।
सुधामय धार से सिंचित, धरा जय हिन्द करती है।।

भले हों भेद कितने भी, एकता संग रहती है।
समन्वय भावनाओं का, रहता मन में कहती है।।
हृदय के तार जोड़े है, एक धागा रेशमी सा।
सरस जल-धार अमृत की, हर इक दिल में बहती है।।

धर्म या सम्प्रदायों की, आस्था दिल में रहती है।
अन्तरों में रूहानी सी, किरण की धार बहती है।।
जहर कुछ लोग उगले हैं, आचमन के दियालों में।
बिना कारण वेदना का, हारकर दंश सहती है।।

लहर जब झेलती पत्थर, भँवर बनकर लहरती है।
हृदय की भावनांए सब, पीर सहकर सिहरती है।।
समझ पाते नहीं कुछ क्यों, निजी हित साधते रहते।
धार्मिक दुष्प्रचारों से, देश की नब्ज गिरती है।।

जिस धरती पर गंगा की,पावन धारा बहती है।
उस धरती पर देवों की,बस्ती आकर रहती है।।
मुकुट हिमालय का सिर पर है,गोदी में हरियाली है।
जिसका पाँव पखारे सागर,सुन्दर छटा निराली है।।

जिस धरती की गौरव गाथा, झूम हिमालय गाता है।
जिस गाथा पर गर्वित होकर, सागर भी लहराता है।।
उस धरती पर जनम लिया,जिसने भी, वह धन्य हुआ।
हर बार जनम हो इस पर ही,दिल करता अब यही दुआ।।

भारत की इस धरती पर,विविधता स्वाद चखती है।
मगर हर भिन्नता अपनी,पृथक पहचान रखती है।।
बड़ी मजबूत जड़ है ये,समझ लें तोड़ने वाले।
एकता मुस्कुराकर के,स्वंय का बल परखती है।।

विविध भाषा, धर्म बोली, स्याह में रंग भरती है।
सरस सद्भावना एका, भिन्न का मेल करती है।।
खान-पान, आचार, रहन, विविध है संस्कृति तो क्या?
बाँधता एक धागा है,अनुपम अपनी धरती है।।

सभी त्यौहार भारत के, चलो मिलकर मनातें हैं।
सुहानी रीत एका की, चलो जग को दिखाते हैं।।
दिवाली, ईद या क्रिसमस, हो नवरोज या लोहड़ी।
रौशनी से उमंगो की, हृदय अपना सजाते हैं।।

जय-जय भारत माता की हो, धरती पर, अम्बर में।
सिर पर मुकुट हिमालय का हो, पग धुलता सागर में।।
करती अर्पण पुष्प दिशाएं, गायें गीत हवाएं।
माँ की दैवी छवि के आगे, सिर झुक जाए आदर में।।

शांति प्रेम भाईचारा, संग एकता बनी रहे।
सदा हिंद की धरती पर, सदभाव की गंगा बहे।।
भौगोलिक अन्तर मधुमय,रस मानस में भरते हैं।
अब न कभी भारत माता, दंश द्वेष का कहीं सहे।।

रहन-सहन जीवन शैली, समरसता के कथ्य कहें।
भेदभाव या राग द्वेष, विष वाले सब किले ढहें।।
समझ सभी में विकसित हो, आओ सभी प्रयास करें।
फसलें महके पुष्पों की, मानस-पट पर सदा लहें।।

हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा, हर हृदय को जोड़ती है।
ये मुश्किल सर्वमान्यता के, हर मिथक को तोड़ती है।।
पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, मध्य के जुड़ते सिरे हों।
हर जगह ये भावनाओं पर, असर गहरा छोड़ती है।।

वाहक बनी है एकता की, हिन्द की हिन्दी हमारी।
बसती धड़कनो में सभी के, प्राण सी हिन्दी हमारी।।
गैर कोई भाषा नहीं है, बोलियाँ फूलें फले सब।
भाव जिसके हैं सब समझते, वो रही हिन्दी हमारी।।

भावनाओं का समन्वय, कर रही हिन्दी हमारी।
गहन मन की रिक्तता को, भर रही हिन्दी हमारी।।
कश्मीर से रामेश्वरम तक, बंगाल से गुजरात तक।
मधु अपनत्व से सभी को, तर रही हिन्दी हमारी।।

प्रेम भाव की शुष्कता को, हर रही हिन्दी हमारी।
आसमान के अमृतों सी, झर रही हिन्दी हमारी।।
सक्त रस से हर हृदय को, बाधा विविध सब तोड़कर।
एकता का तार स्वर्णिम, कर रही हिन्दी हमारी।।

कृष्ण के जैसा सारथी, बन रही हिन्दी हमारी।
सामने है विघटनों के, तन रही हिन्दी हमारी।।
शक्ति रखती सोखने की, भाप जो उठती कलह की।
एकता के पर्व जैसी, मन रही हिन्दी हमारी।।

मौन धीरे से हृदय में, छन रही हिन्दी हमारी।
मधुर रस में अमृतों के, सन रही हिन्दी हमारी।।
शूरता के संग मिठासें, भाव रस हर रंग के हैं।
नित नयी सम्भावना को, जन रही हिन्दी हमारी।।

एक भारत, श्रेष्ठ भारत, श्रेय है, श्रद्धेय भी।
शूरवीरों की धरा ये, परम पावन प्रेय भी।।
हो सकेगा ना विखण्डित, कोशिशों में विघटनों की।
ये समझ ले शत्रु एका, धर्म है तो ध्येय भी।।

देश प्रेम के गीत सभी, कर्ण प्रिय हैं, गेय भी।
देश भक्ति में पगे हुए,अमृतों से पेय भी।।
जोश की अनमिट लहर दे, भाल उन्नत राष्ट्र का।
जो न झूमे इस लहर में, वो रहेगा हेय भी।।

देश-प्रेम की प्रबल धार को, हर मन में बहना होगा।
बुरी नज़र न डाले कोई, दुनिया से कहना होगा।।
जो विघटन के स्वप्न बुन रहे, घात लगाकर बैठे हैं।
समझें वे भारत का बनकर, भारत में रहना होगा।।

जो डटा हुआ सीमाओं पर,देश-प्रेम को पहना होगा।
मुश्किलें जहाँ प्रतिपल पथ में, साहस-बल ही गहना होगा।।
रसधार ह्रदय में भावों की, जब उन्मत हो बहती है।
शीश झुकाकर द्वेष-महल को, टूट-टूटकर ढहना होगा।।
भारत अखंड बड़ा, तेजबल प्रचंड बड़ा।
भव्य आन-बान है, जन-गण-मन गान है।।

सूर्य स्वर्ण-रश्मियां, दग्ध तप्त वृत्तियां।
सिन्धु है सँवारता, पूज्य पद पखारता।।

हिमगिरि का है मुकुट, शत्रु हाल है विकट।
कोशिशें जो खंड की, तो तय फिर दंड भी।।

बाहर भी शत्रु हैं, अंदर भी शत्रु हैं।
साथ मगर मित्र हैं, तत्पर भी पुत्र हैं।।

सहन सर्व आँच है, यह सशक्त साँच है।
हिन्द नहीं काँच है, गौरव जग में बाँच है।।


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