1857, mere mitra ,sarhad ke sipahi

कवी-श्री शिवनारायण जौहरी विमल)
मेरे मित्र

कोई तो देश के खातिर
कूद कर मैदान में
झंडे में लपिटवा कर अपना बदन
शहीद होकर मर गया

कोई हर घड़ी मरता रहा
डरता रहा छ्क्का लगाने से
विकेट पर बने रहना चाहता था
यह नहीं सोचा तुम्हारा भी
विकेट गिर जायगा इक दिन
संकल्प जिस दिन लिया
चढ़ गया एवरेस्ट पर उस दिन |

मित्र तुमने भी शपथ ली थी इक दिन
पर देश मरता और तुम
जीते रहे अपने लिए ?
किसी के घाव पर मरहम लगाया ?
किसी की पीर सहलाई ?
धरती रही पैरों तले
और दृष्टि तारे गिन रही थी |।।।
श्री शिवनारायण जौहरी विमल
[8/24, 7:18 PM] Madhu: श्री शिवनारायण जौहरी विमल

सरहद के सिपाही

निशा सुंदरी रजनी बाला

तिमिरांगन की अद्भुत हाला

हीरक हारों से भरा थाल ल्रे

कहाँ चलीं जातीं हर रात

और बेच कर हार रुपहले

सुबह लौटती खाली हाथ

पूरा थाल खरीदा मेंने

चलो आज तुम मेरे साथ

उस सरहद पर जहां पराक्रम

दिखा रहा है अपने हाथ

बना भीम सरहद का रक्षक

रिपु की गरदन तोड़ रहा है

पहना दो सब हार उसी को

भारत जय जय बोल रहा है ।।।।

श्री शिवनारायण जौहरी विमल
17 /7/2020
[8/24, 7:22 PM] Madhu: १८५७

सत्तावन का युद्ध खून से
लिखी गई कहानी थी
वृद्ध युवा महिलाओं तक
में आई नई जवानी थी
आज़ादी के परवानों ने
मर मिटने की ठानी
क्रांति संदेशे बाँट रहे थे
छदम वेश में वीर जवान
नीचे सब बारूद बिछी थी
ऊपर हरा भरा उद्धयान
मई अंत में क्रांतिवीर को
भूस में आग लगानी थी !

मंगल पांडे की बलि ने
संयम का प्याला तोड़ दिया
जगह जगह चिंगारी फूटी
तोपों का मुँह मोड़ दिया
कलकत्ता से अंबाला तक
फूटी नई जवानी थी !

मेरठ कानपुर में तांडव
धू धू जले फिरंगी घर
नर मुंडों से पटे रास्ते
गूँजे जय भारत के स्वर
दिल्ली को लेने की अब
इन रणवीरों ने ठानी थी !

तलवारों ने तोपें छीनी
प्यादों ने घोड़ो की रास
नंगे भूखे भगे फिरंगी
जंगल में छिपने की आस
झाँसी में रणचंडी ने भी
अपनी भृकुटी तानी थी !

काशी इलाहाबाद अयोध्या
में रनभेरी गूँजी थी
फर्रूखाबाद इटावा तक में
यह चिंगारी फूटी थी
गंगा यमुना लाल हो गई
इतनी क्रुद्ध भवानी थी !

आज़ादी की जली मशालें
नगर गाँव गलियारों में
कलकत्ता से कानपुर तक
गोली चली बाज़ारों में
तात्या बाजीराव कुंवर की
धाक शत्रु ने मानी थी !

दिल्ली पर चढ़ गये बांकुरे
शाह ज़फर सम्राट बने
सच से होने लगे देश
की आज़ादी के वे सपने
अँग्रेज़ों को घर जाने की
बस अब टिकिट कटानी थी !

लेकिन आख़िर वही हुआ
सर पत्थर से टकराने का
किंतु हार है मार्ग जीत
को वरमाला पहनाने का
बर्बरता को रौंध पैर से
मा की मुक्ति कराना थी !

आज़ादी का महासमर यह
चला निरंतर नब्बे साल
बदली युध नीतियाँ लेकिन
हा थो में थी बही मशाल
पंद्रह अगस्त को भारत ने
लिखी नई कहानी थी
आज़ादी की हुई घोषणा
दुनियाँ ने संमानी थी !!!!!!!!!

कवि—शिव नारायण जौहरी विमल


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