लिखना चाह रहा हूँ पर मन मैं थोड़ा संशय है,
मुझ नाचीज़ को मिला आज क्रांति का विषय है,
उन वीरों के आगे शब्द बड़े ही हैं बौने,
जिनकी हुंकारों से फिरंगी खोजते थे कोने |
ये गाथा है उन वीरों के इंकलाब की,
रणभूमि मैं फैले हुए एक सैलाब की |
आज़ाद, भगतसिंह और सुभाष के आगे ये सर नतमस्तक है,
जहाँ राजगुरु, बिस्मिल ने भी किया खून से तिलक है |
उन बिरले दीवानों ने नाकों चने चबवाये थे,
गोरे फिरंगिओं को खून के आंसू रुलाये थे |
उनके कण कण मैं तो आज़ादी का जज्बा था,
अपने तिरंगे के आगे बाकी सब एक धब्बा था |
मरमिटे वो बचाने तिरंगे की शान को,
छुड़ा लाये उन गिद्धों से हिंदुस्तान को |
उफ़ तक नहीं होने दी हँसते हँसते मर मिटे,
झूल गए वो फाँसी पर जरा नहीं वो सिमटे |
निर्भयता, निडरता और बड़े हर्ष से कटवा लिए अपने गले,
पर छुड़ा लाये वो प्यारा भारत जो था कभी अंग्रेज़ों तले |
इंकलाब जिंदाबाद उनका प्यारा नारा था,
गैर मुल्कों की ग़ुलामी उनको नहीं गवारा था |
उन शहीदों के कारण ही हिन्द बना खुशहाल है,
ऐसे शूरवीरों को कोटि कोटि प्रणाम है |
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